भूल


केहना है एक राज़ उस हमनशीं से,
भूल हो गयी थी शायद कोई हमीं से|

गुजर गया दौर-ऐ-परेशानी सनम,
जाती क्यों नहीं शिकन तेरे ज़बीं से|
भूल हो गई थी शायद कोई हमीं से|

उड़ता था ख्वाइशों के पर लिए,
उठता नहीं अब पांव ज़मीन से|
भूल हो गयी थी शायद कोई हमीं से|

चल संभलकर राह-ऐ-जवानी रकीब,
इश्क न हो जाए किसी शोख महजबीं से|

कहता था हाल-ऐ-दिल सभी से दीवाना,
कहता कुछ नहीं अब किसी से|
भूल हो गयी थी शायद कोई हमीं से|

‘वीर’ तेरी बेरुखी अब फुघान हो चली,
उनको लगते हैं मिजाज़ तेरे, कुछ रंगीन से|

2 Responses

  1. क्या बात है……….. बहुत सुन्दर रचना

  2. KYA KAHE O VIR TERE BARE ME
    LIKH TEHO AESA KI SOCH ME
    PADH JAYE DIMAG AADHA

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