Posted on अप्रैल 18, 2010 by वीर
पल में अक्स सा ओझल हो जाऊँगा,
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा|
खलिश भी ना होगी जुदाई की कोई,
तुम्हारे ज़हन में ऐसा बस जाऊँगा|
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा…
हाथों की लकीरों को जब देखोगे कभी,
इनमे कहीं तुम्हे मैं नज़र आऊँगा|
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा…
जब कभी सुनोगे हवाओं की सदा,
खुशबू बनके तुम में सिमट जाऊँगा|
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा…
गम के छलकेंगे अगर कभी अश्क,
तब ख्यालों में तुमसे लिपट जाऊँगा|
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा…
ये भी मेरा सच है मेरे हमनफस,
तुमसे मैं जल्द ही बिछड़ जाऊँगा|
अनजाने ख्वाब सा कहीं खो जाऊँगा…
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Posted on अप्रैल 16, 2010 by वीर
तेरे नाम को हम कब रोते हैं,
हासिल के दायरे बहुत छोटे हैं|
ना रख कोई खलिश दिल में,
ख्वाब आखिर ख्वाब ही होते हैं|
हासिल के दायरे बहुत छोटे हैं…
यही तो दस्तूर है ज़माने का,
मिलकर दिल अक्सर जुदा होते हैं|
हासिल के दायरे बहुत छोटे हैं…
मुन्तज़िर ना छोड़ किसी को ‘वीर’,
तुझसे आवारा कब घर लौटे हैं|
हासिल के दायरे बहुत छोटे हैं…
थोड़ी बेवफाई जायज़ हैं ना ‘वीर’,
यार तो आखिर यार ही होते हैं|
हासिल के दायरे बहुत छोटे हैं…
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Posted on अप्रैल 16, 2010 by वीर
कोई सहरा में बूँद ढूँढता है,
कहीं सागर भी प्यासा रहता है|
कहीं चार लम्हें जिंदिगी बन जाते हैं,
कहीं कोई बरसों पल पल मरता है|
कहीं सागर भी प्यासा रहता है…
कभी अश्क पी लेता है छलकने से पहले,
कभी खामोश तन्हा सिसकता रहता है|
कहीं सागर भी प्यासा रहता है…
कहीं लफ्ज़ कह नहीं पाते हैं खलिश,
कोई आँखों से ही सब कहता है|
कहीं सागर भी प्यासा रहता है…
कहीं किस्मत को इलज़ाम मिलते हैं ‘वीर’,
कोई कहीं वक्त सा बहता है|
कहीं सागर भी प्यासा रहता है..
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Posted on अप्रैल 16, 2010 by वीर
अपने दामन में खोने दो मुझे,
आज लिपट कर रोने दो मुझे|
बड़ी मुद्दत से पथराई हैं आंखें,
आज देर तलक सोने दो मुझे|
आज लिपट कर रोने दो मुझे…
भागते भागते बिछड़ा खुदसे,
फिर मुझसा होने दो मुझे|
आज लिपट कर रोने दो मुझे…
दिल अपनों के दागों से भरा है,
हर दाग दिल का धोने दो मुझे|
आज लिपट कर रोने दो मुझे…
अब मौत को भी रुसवा करूँ,
सबसे बेखबर सोने दो मुझे|
आज लिपट कर रोने दो मुझे…
खुद की हस्ती का गुलाम है ‘वीर’,
अपनी ज़ुल्फ़ में खोने दो मुझे|
आज लिपट कर रोने दो मुझे…
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Posted on अप्रैल 15, 2010 by वीर
शब्दों का मदारी समझते हो,
ख़ामोशी को वफादारी समझते हो|
रिश्तों में कोई प्यार नहीं है,
इन्हें बस जवाबदारी समझते हो|
शब्दों का मदारी समझते हो…
हाँ सोचता हूँ हर पल तुम्हे,
इसे मेरी बेरोज़गारी समझते हो|
शब्दों का मदारी समझते हो…
बस यूँ ही अनसुना कर देते हो,
या कोई बात हमारी समझते हो|
शब्दों का मदारी समझते हो…
जो हमने कही दिल की बात तुमसे,
क्यों इसे मेरी अदाकारी समझते हो|
शब्दों का मदारी समझते हो…
मेरी बंदगी ही मेरा ईमान है,
इसे किस्मत की लाचारी समझते हो|
शब्दों का मदारी समझते हो…
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Posted on अप्रैल 7, 2010 by वीर
ऐसे नादां की हर ठोकर पर गिरते हैं,
फिर भी हम दाना बने फिरते हैं|
कौन मरता है किसी के साथ यहाँ,
कैसे हमदम जाना बने फिरते हैं|
फिर भी हम दाना बने फिरते हैं…
कहने को एक घर है पास लेकिन,
कितने साये वीराना बने फिरते हैं|
फिर भी हम दाना बने फिरते हैं…
जाने क्या ढूँढते हैं गलियों गलियों,
क्यों हम दीवाना बने फिरते हैं|
फिर भी हम दाना बने फिरते हैं…
वक्त भी अजब सौदागर है ‘वीर’,
चंद लम्हे ज़माना बने फिरते हैं|
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Posted on अप्रैल 6, 2010 by वीर
माज़ी के दाग यादों से जाते क्यों नहीं,
मैं तो भुल चला, ये ज़क्म मुझे भुलाते क्यों नहीं|
झटक दूं इन्हें ज़हन से तो साँस मिले,
मार तो दिया है मुझे, ज़ालिम दफनाते क्यों नहीं|
ना अश्क से सींचा, ना ख्यालों की ज़मीन दी,
फिर भी दर्द के ये फूल, मुरझाते क्यों नहीं|
क्या तेरा रूठना गवारा है हसरतों को ‘वीर’,
ख्वाब नए देकर तुझे मनाते क्यों नहीं|
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Posted on अप्रैल 6, 2010 by वीर
कहाँ चला रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो,
क्यों रुका रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो|
जाना है कहाँ और जाता है कहाँ,
क्यों बेखबर रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो|
थोड़ी फितरत है और थोड़ी हसरत,
क्यों मुड़ा रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो|
मील के पत्थर पर नाम उसका है,
क्यों खड़ा रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो|
जब मरेगा तो रास्ता भी होगा फ़ना ‘वीर’,
क्यों ढला रास्ता रास्ता, मुसाफिर पूछो|
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Posted on अप्रैल 6, 2010 by वीर
कच्ची नींद का ख्वाब हसीन होता है,
थोडा नमकीन थोडा रंगीन होता है|
मचलता है मुमकिन की दीवारों से भिड कर,
कभी सांसों सा ज़मीन होता है|
कच्ची नींद का ख्वाब हसीन होता है…
लबों पर मुस्कुराहट बन नाचता है दिन भर,
शाम ढले थोडा ग़मगीन होता है|
कच्ची नींद का ख्वाब हसीन होता है…
वरना तो कल भी आज जैसा ही होगा ‘वीर’,
इन ख्वाबों से ही जिंदिगी पे यकीं होता है|
कच्ची नींद का ख्वाब हसीन होता है…
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Posted on अप्रैल 5, 2010 by वीर
लफ़्ज़ों के नक़ाब से गम छुपा लिया करते हैं,
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं|
जब ख़ामोशी खटखटाती है तन्हाई का दरवाज़ा,
अपनी ग़ज़लों को हम गुनगुना लिया करते हैं|
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं…
कभी दिल मचल के कहने लगता है हाल अपना,
तब एक साँस में हम कुछ बुदबुदा लिया करते हैं|
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं…
रात जब वीरानो में ढूँढती फिरती है नींद को,
हम तेरी यादों से ज़हन सजा लिया करते हैं|
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं…
हकीक़त जब अपने थपेडों से अक्स धुंधलाती है,
आँखों में हम तस्वीर तेरी बना लिया करते हैं|
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं…
सूख जाता है ज़हन जब खलिश की आग से,
तेरी याद में हम कुछ अश्क बहा लिया करते हैं|
तारीफ़ ए ग़ज़ल पर हम मुस्कुरा लिया करते हैं…
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Posted on अप्रैल 4, 2010 by वीर
कुछ पल जीने की भूल कर बैठा हूँ,
अपने ज़ख्म सी ने भूल कर बैठा हूँ|
प्यासा रहना किस्मत है और फितरत भी,
तेरी आँखों से पीने की भूल कर बैठा हूँ|
अपने ज़ख्म सी ने भूल कर बैठा हूँ…
यूँ तो आई थी मेरी राह में मोहब्बत कभी,
मैं ही इसे खोने की भूल कर बैठा हूँ|
अपने ज़ख्म सी ने भूल कर बैठा हूँ…
अश्कों की रिमझिम से सहरा नहीं मिटता,
तेरे साथ दो अश्क रोने की भूल कर बैठा हूँ|
अपने ज़ख्म सी ने भूल कर बैठा हूँ…
ख्वाब बुनने का हक हर किसी को नहीं,
खुली आँखों से सोने की भूल कर बैठा हूँ|
वक्त के साथ दर्द जिस्म बन जाता है ‘वीर’,
इन्हें फिर से छीने की भूल कर बैठा हूँ|
अपने ज़ख्म सी ने भूल कर बैठा हूँ…
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Posted on अप्रैल 4, 2010 by वीर
यादों के बोझ से वक्त लंगड़ा गया है!
घड़ी के दो काँटों की बैसाखी लिए..
शाम से रेंग रहा है यहाँ|
इसके हर कदम की आहट साफ़ साफ़ सुनाई देती है|
यही वक्त था जो हमारे हाथों से यूँ फिसल जाया करता था|
कैसे ख़ामोशी से ये अपने तेज कदम रखता था|
आकर देखो,
मैंने इसे कुछ लम्हों से कैसे बांध दिया है!
लंगड़ा वक्त!!
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Posted on अप्रैल 4, 2010 by वीर
इंतज़ार की घडी इबादत हो गयी है,
ए दिल तुझे उसकी आदत हो गयी है|
कुछ सोच ले अपने बारे में भी,
खुदसे खुदकी मीठी बगावत हो गयी है|
ए दिल तुझे उसकी आदत हो गयी है…
उसके नाम से पुकार ना लूं रकीब को,
इश्क में बड़ी हिमाकत हो गयी है|
ए दिल तुझे उसकी आदत हो गयी है…
पहले नहीं थी जिंदिगी की कद्र इतनी ‘वीर’,
अब किसी और की ये अमानत हो गयी है|
ए दिल तुझे उसकी आदत हो गयी है…
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Posted on अप्रैल 2, 2010 by वीर
उथले समुन्दर का फेला किनारा है वो,
शायद मुझ जैसा ही आवारा है वो|
वो सही बेवफा ज़माने की नज़र में,
हर हाल में मुझे गवारा है वो|
उसे नहीं आरजू किसी से कोई,
तन्हा अपना खुद सहारा है वो|
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
क्यों लिखते हैं बेखुदी अपनी,
हैं गम हमारे खुशी अपनी|
आईने से नाराज़ हैं हम,
है खुदसे बेरुखी अपनी|
कोई पूछे मंजिल तो क्या कहें,
आवारा कर गयी बेसुधी अपनी|
कौन हैं हालात का जवाबदार,
हैं हम और है बेबसी अपनी|
मिलो सबसे मुस्कुरा कर ‘वीर’,
ज़माना देखले जिंदादिली अपनी|
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
दिखाई दे हर शय में तुझे,
उसे ऐसे आँखों में भर लें|
महकता रहे ज़हन हमेशा,
उसे ऐसे सांसों में भर लें|
कुछ ना रहे माज़ी का बाकी,
उसे ऐसे यादों में भर लें|
सिर्फ एक लकीर हो किस्मत की,
उसे ऐसे हाथों में भर लें|
हर लफ्ज़ में घुल जाए ज़िक्र,
उसे ऐसे बातों में भर लें|
काली गुमसुम तन्हा ना बीते,
उसे ऐसे रातों में भर लें|
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
रुखा सा लम्हा ले कर उसे,
हम नम बना लिया करते हैं|
तेरे बिना वक्त की सदियाँ,
हम यूँ गुज़ार लिया करते हैं|
याद जब खलिश सी लगती है,
नाम तेरा पुकार लिया करते हैं|
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
उसूल दरवाज़ा खटखटाते हैं तो जज़्बात सहम जाता है,
दिल बच्चा सा है हमारा थोड़ी आहट से सहम जाता है|
सही और गलत के दायरों में ढलते ढलते,
मासूम एक नन्हा सा दिल मचल जाता है|
झूट और सच का आईना बड़ा कमज़ोर होता है,
हसरत के एक छोटे से पत्थर से ये चटक जाता है|
सोचता हूँ सारे दर्द तो कर लिए हैं मैंने महसूस,
फिर क्यों उसे मिलकर ये आँसू छलक जाता है|
रोना ना मेरी फितरत हैं ना कोई मजबूरी,
बस कभी कभी दिल यूँ ही सिसक जाता है|
कभी ज़हन समुन्दर सा सब पी लेता है,
तो कभी तूफ़ान सा भड़क जाता है|
जब गुलिस्तां में खिज़ा का मौसम है बरसों से,
एक सूखे फूल की खुशबू से ये महक जाता है|
तुम भी जानते हो ख्वाबों की हकीकत को,
पर दिल-ए-नादाँ इनसे ही लिपट जाता है|
है गुमराह अपनी जिंदिगी इस कदर ‘वीर’,
ये आवारा दूसरों के रास्तों पर भटक जाता है|
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
कह दूं ये राज़ तुमसे,
के मैं हूँ नाराज़ तुमसे|
झूमते हो मेरे लफ़्ज़ों पर,
छीन लूं ये साज़ तुमसे|
के मैं हूँ नाराज़ तुमसे…
ये कुर्बत है और फासला भी,
जोड़ते हैं मुझे अलफ़ाज़ तुमसे|
के मैं हूँ नाराज़ तुमसे…
बेखुदी में फ़ना होगा ‘वीर’,
अंजाम की होगी आगाज़ तुमसे|
के मैं हूँ नाराज़ तुमसे…
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Posted on अप्रैल 1, 2010 by वीर
फिर सर झुकाये दिखे हम आईने में,
फिर खुदको छुपाये दिखे हम आईने में|
जो अक्स धुंधला दिया वक्त ने,
उससे फिर घबराये दिखे हम आईने में|
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