तडपता है तो रोता क्यों नहीं,
रात है ज़ालिम तू सोता क्यों नहीं|
है अगर जिंदिगी कोई क़र्ज़ तुझपे,
फिर खामोश ढोता क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
गर नहीं इक्तेहार में कुछ तेरे,
कर लेता समझोता क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
अतीत को किया तो है तालाबंद,
इसकी चाबी खोता क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
है अगर अपनी खुदी पे यकीं तुझे,
मुक़द्दर का खुदा होता क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
अपने अक्स से भी नाराज़गी रही,
साथ हर वक्त वो था क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
लफ़्ज़ों में बसता है तेरा सुकून ‘वीर’,
तो फिर हासिल होता क्यों नहीं|
तडपता है तो रोता क्यों नहीं …
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