घर के एक कोने में बैठा,
निगाहों में वही तीर लिए,
यार जो यारी तोलता है,
एक आईना जो बोलता है|
हर दिन मैं बदल गया,
हर हाल में वो ढल गया|
वो खुदा की तरह बुलंद है,
न हँसता है, न रोता है,
एक आईना जो बोलता है|
मेरे उसूल खोखले हो गए,
सपनों के फूल कांटे बो गए|
चला था काफिला लेके,
साथी राहों में कहाँ खो गए..
वहीं लटका क्या सोचता है,
एक आईना जो बोलता है|
सुबह उसकी आँखों में खोजता,
नए मायने जिंदिगी के|
शाम जिसकी बाँहों में ढूँढता,
नए जवाब जिंदिगी के|
तनहाइयों में,
चुपके से क्या कहता है,
एक आईना जो बोलता है|
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