Posted on मार्च 31, 2010 by वीर
आओ हिसाब साफ़ कर लें,
खुदको खुदसे पास कर लें|
सच बोलना महंगा था ना सनम,
एक दुसरे के झूठ माफ कर लें|
नज़र आयें वैसे जैसे हैं हम दोनों,
ईमान अपना मिलकर पाक कर लें|
मैं बसा लूं आपको सीने में,
आप गिराके ज़ुल्फ़ को रात कर लें|
क्यों रहें हम पर्दों में ‘वीर’,
आओ दिल से दिल के बात कर लें|
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Posted on मार्च 31, 2010 by वीर
सब पा लिया खोके अजब बात है,
मेरी नज़र की भी गज़ब बात है|
ना चाँद, ना सितारे, ना बादल, ना हवा,
ज़हन में सिमटी हुई अजब रात है|
वो पास रहे ना रहे कोई फर्क नहीं,
करीब है हमेशा उसका अजब साथ है|
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Posted on मार्च 31, 2010 by वीर
मुझ में तुझ में फर्क तो है,
मुझे तुझसा कोई दर्द तो है|
तू देखता है जिंदिगी लम्हा लम्हा,
मुझपे जिंदिगी का क़र्ज़ तो है|
मुझ में तुझ में फर्क तो है…
तु ने बहाए हैं जो थोड़े अश्क मेरे,
मुझे इस बात का थोडा हर्ज तो है|
मुझ में तुझ में फर्क तो है…
इतनी धुप की साया भी उबलता है,
मुझमें तेरे मासूम प्यार की सर्द तो है|
मुझ में तुझ में फर्क तो है…
कोई दिल की सुनके भी जीता है यहाँ,
हर शख्स के पास निभाने को फ़र्ज़ तो है|
मुझ में तुझ में फर्क तो है…
दे दे ज़हर तो हो इसका इलाज चारागाह,
जान के साथ जाए ऐसा ये मर्ज़ तो है|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
कहना है तो आवारा मुझे कहो दोस्तों,
आओ मेरे साथ थोडा और बहो दोस्तों|
दोस्ती की है तो संभालो गिरते हुए,
बस देखते ना मुझे रहो दोस्तों|
मेरी फितरत तुम्हे ना लग जाए कहीं,
तुम भी ना लम्हा लम्हा मरो दोस्तों|
है इसकी अदा हमें तड़पाने की,
हौले हौले गम सहो दोस्तों|
क्या सब लाचार हैं तुझसे वीर,
कभी कुछ तो करो दोस्तों|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
कहते कहते बात निकली,
करहा के हमसे आह निकली|
बंद ताले जब खोले हमने,
गुजरी हुई हर साँस निकली|
देखते देखते सहर हो गयी,
आँखों आँखों में रात निकली|
बंदगी की बाज़ी जीत तो गया,
इसमें खुदी की मात निकली|
कहाँ है तू मेरी हमनफस,
कहने को तो तू मेरे साथ निकली|
इसे मंजिल समझने कि भूल थी ‘वीर’,
देख इससे गुजरती कितनी राह निकली|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
ख्यालों से मुझे ना समझ पाओगे,
लफ़्ज़ों से मुझे ना पकड़ पाओगे|
मेरे दर्द का एहसास तो होगा तुम्हे,
मेरी नम आँखों का ना देख पाओगे|
मुझे कतरा कतरा बाँट तो लोगे तुम,
इन कतरों से मुझे ना जोड़ पाओगे|
सुन भी लोगे सदा अगर चाहो तो,
मगर मेरी आह को ना सुन पाओगे|
मशवरा है कि ना आओ मेरे करीब,
इस गहराई में तुम भी डूब जाओगे|
मैं तन्हा ही रहूँगा ये हकीकत है,
तन्हाई मुझसे जुदा ना कर पाओगे|
तोड़ तो लोगे तुम मेरे शीशमहल को,
इसकी तस्वीर मुझसे ना छीन पाओगे|
आना भी चाहोगे अगर कभी अगर,
रास्तों को मुझ तक ना मोड़ पाओगे|
हो भी जाए अगर ज़हर पीना तुम्हे गवारा,
इस ज़हर को पिके मुझसे ना जी पाओगे|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
लाओ मैं ही ख्वाब तुम्हारा तोड़ दूं,
बेवफा होकर दिल तुम्हारा तोड़ दूं|
अपने ही तो जलाते हैं जिस्म चिता में,
मैं ख्याल बनकर ज़हन तुम्हारा छोड़ दूं|
फिर तुम्हे मिले ना मिले कोई रहनुमा,
आज मैं ही रास्ता तुम्हारा मोड़ दूं|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
सादगी गुमा दी माँ मैंने,
जिंदिगी उलझा ली माँ मैंने|
मिली ना सुकून की बूंद तो,
आंख अपनी भिगा ली माँ मैंने|
तू कहती थी होसला रख हमेशा,
देख उम्मीद की लौ बुझा दी माँ मैंने|
बनाता था कभी कागज से कश्तियाँ,
देख सारी कश्तियाँ डूबा दी माँ मैंने|
आज तू भी अपने दुलारे से दूर है,
और दूरियाँ और बढ़ा दी माँ मैंने|
आज अपने चेहरे पे ख़ाक लेप के,
अपनी होली मना ली माँ मैंने|
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Posted on मार्च 30, 2010 by वीर
मुझको खुदा मत बना पछतायेगा!
मैं बंदगी नहीं इखलास का प्यासा हूँ,
मुझको इबादत मत बना पछतायेगा|
है मुझ में दर्द कई, मैं भी नाराज़ हूँ खुदसे,
मुझको फरिश्ता मत बना पछतायेगा|
मैं हासिल से दूर ही भला, खाली हाथ जाऊँगा|
मुझको सिकंदर मत बना पछतायेगा|
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
ये सब जो भागता है नज़रों में..
ये चेहरे जो बार बार देखते हैं मेरी तरफ..
ये रिश्ते जो अक्सर बांधते हैं मुझे अपने दामन से..
ये ख्याल जो मुझे अक्सर मायूस करते हैं…
ये लफ्ज़ जो भटकते है अनाथ बच्चों से..
ये इश्क जो मुझे दीवाना बनाता है..
ये बंदगी जो मुझे खोकला करती है..
ये रूह जो मुझे प्यासा रखती है..
सब फ़ना है मेरी खुदी से!
अब इनके सजदों का मैं खुदा हूँ!
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
एक दिल है, और हसरत कितनी|
एक खुदी है, और बरकत कितनी|
एक इश्क है, और हरकत कितनी|
एक शख्स है, और कुर्बत कितनी|
एक बिस्तर है, और सिलवट कितनी|
एक नींद है, और करवट कितनी|
एक मरासिम है, और फुर्क़त कितनी|
एक दरवाज़ा है, और खटखट कितनी|
एक जिंदिगी है, और फुर्सत कितनी|
एक दुनिया है, और नफरत कितनी|
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
देखा ना सोचा ना!
बस कर दिया हवाले|
कौन कब तलक शीशा संभाले|
रखा ना अपना भरोसा बंद ताले में,
जो चाहे मेरी ज़मीन उड़ा ले|
है तेरे नज़र खुदी मेरी,
तू चाहे गिराए तो चाहे उठाले|
है मोहब्बत चारो और फेली,
तू जहाँ चाहे अपना घर बना ले|
तिनके का भी बड़ा दिल है ‘वीर’,
कहता हैं लहरों से जहाँ चाहे बहा ले|
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
जकड़ता है दर्द अंदर मुझे,
पिघलता हूँ तेरे अहसास से…
बरसों से जमी है नमी आँखों में,
सिमटता हूँ तेरे अहसास से…
थी ख़ामोशी की आदत बरसों से मुझे,
थोडा डरता हूँ तेरी आवाज़ से…
कहीं बेखुदी मेरी ना पी जाये तुझे,
मैं बिखर ना जाऊं तेरे अहसास से..
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
उन ग़ज़लों को स्याही का कफ़न नसीब ना हुआ,
उन नज्मों को आवाज़ का मज़ार नसीब ना हुआ..
उन रिश्तों को नाम का लिबास,
उन अश्कों को दामन-ए-यार..
नसीब ना हुआ..
उन कहानियों को याद का सहारा..
उन लम्हों को ज़ुल्फ़-ए-यार..
नसीब ना हुआ..
उन सावलों को जवाब,
उन जवाबों को इंतज़ार…
नसीब ना हुआ..
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
जब दो दिल एक साथ धड़कते हैं,
जब दो साये एक साथ भटकते हैं|
कौन किसकी ताकत है किसे पता,
कभी रोते हैं तो कभी सिसकते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
कोई ढूँढता है खोया प्यार किसी में,
तो किसी के दर्द पिघलते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
कुर्बत की इन्तहा नहीं होती ‘वीर’,
हर गहराई पे नए मोती मिलते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
एक फ़साना तेरा कोई, एक कहानी मेरी,
हर रोज हम किसी किरदार में ढलते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
थामा है वक्त को लम्हा लम्हा,
रुका है ज़माना बस हम चलते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
प्यार लिखता हैं मेरी कहानी पन्ना पन्ना,
इनमे कभी फूल तो कभी कांटे मिलते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
सहेज लो मोहब्बत को दिल में ‘वीर’,
सुना है लोग इसके लिए उम्र भर त्तरसते हैं|
जब दो साये एक साथ भटकते हैं…
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Posted on मार्च 29, 2010 by वीर
गम जो लफ़्ज़ों में घुल नहीं पाते,
लब तक आते तो हैं|
खत जो हम उन्हें लिख नहीं पाते,
तन्हाई में जलाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
जो फ़साने उसे हम कह नहीं पाते,
अजनबियों को सुनाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
तो क्या अगर हवा से बिखर जाए,
हम फिर भी घर बनाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
क्या थाम लेंगे वो मुझे गिरते हुए,
दोस्त हाथ मिलाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
हर तमन्ना हासिल हो ज़रूरी नहीं,
हम ख्वाब सजाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
ना सही दिल में थोड़ी जगह मेरे लिए,
लोग हमको घर बुलाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
हम ना सही हसने की हालत में ‘वीर’,
सबको हम थोडा हसाते तो हैं|
लब तक आते तो हैं…
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Posted on मार्च 26, 2010 by वीर
मेरे ख्यालों से भर गए ना तुम,
मुझे और खोकला कर गए ना तुम|
इतना सहम गए शीशे से क्यों,
अपने अक्स से ही डर गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
मुझे दे कर जिंदिगी सज़ा में,
खुद लम्हा लम्हा मर गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
मैं अब भी खड़ा हूँ उसी जगह,
आखिर अकेला छोड़ बढ़ गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
तेरी फितरत नहीं है गिरेबान पकड़ने की,
फिर क्यों आज हर किसी से लड़ गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
मैं गुजरता रहा बेखुदी राहों पर,
मेरे ज़हन के हर मोड पर पढ़ गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
मुझे जिसका डर था हुआ ना फिर वही,
कहा था तुम से पर गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
कहा था ना रख कोई दर्द दिल में ‘वीर’,
देख इनके बोझ से गढ़ गए ना तुम|
मुझे और खोकला कर गए ना तुम…
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Posted on मार्च 25, 2010 by वीर
वीर
भीड़ में गुम होता एक शख्स…
मेरे कुछ रंग अपने चेहरे में लगाये|
मुझसा दिखता है|
ओझल होता उसका साया घुलता जाता है लोगों में|
मुझे अंदर खलिश सताती है|
सोचता हूँ भाग के उसे पकड़ लूँ|
कुछ उसके रंग अपने चेहरे पे लगा लूँ|
रोकता हूँ खुद को..
कहता हूँ बस शायद मोहब्बत है|
इश्क की दीवानगी है|
मैं तो सयाना हूँ अब|
जितना ओझल होता है वो…
उतना कुछ मुझे अंदर जकड़ता है|
मेरे पैर जम से गए हैं|
अपना हाथ देखा तो समझा ये रंग दर्द का है|
मेरे ज़हन में एक लौ सच्चाई की जलती है|
जहाँ इश्क, मोहब्बत, वफ़ा नहीं पहुँचती अक्सर..
उन गमों की सदा सुनता हूँ|
मेरे पैरों में खून पिघलता है..
मेरी सांसें उसका नाम चीखती हैं|
में भाग रहा हूँ तुझ तक आने के लिए|
सारी भीड़ में तू मुझे साफ दिखता है|
मैं नहीं खोऊंगा तुझे|
सुन रहे हो ना तुम मेरे क़दमों की आहट|
पलट के देखो, मैं साथ हूँ तुम्हारे…. हमेशा|
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Posted on मार्च 25, 2010 by वीर
खामोश हम नाचते रहे ख्यालों के साथ|
कुछ ख्यालों को ख्वाब के लिबास दे डाले|
कुछ ख्यालों को हसरतों का मुखोटा|
कुछ खमोशियों को इकरार के नज़र कर दिया|
कुछ रास्तों को मंजिल मान लिया|
कुछ मुस्कुराहटों को मौसिकी|
नज़रों के खेल को न्योछावर कर दिया ज़ुबान पर|
लम्हों को यादों से सहेज के अपने सिने में दफन कर दिया|
सवालों को रास्तों में कहीं फेक दिया|
हम बच्चों से हो गए…
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Posted on मार्च 25, 2010 by वीर
अब ना कोई शिकवा है जिंदिगी से,
ज़हर पी लिया हमने अपनी खुशी से|
भटकते ख्यालों का जशन ना हो खत्म,
कुछ सिलसिले बना रखे हैं सभी से|
अब ना कोई शिकवा है जिंदिगी से…
ढूँढता है वो मुझे गलियों गलियों,
जब हम मिट चुके हैं कभी के|
अब ना कोई शिकवा है जिंदिगी से…
मेरा नाम लिए फिरता हैं शहर भर,
मैं उसे पहचानू कैसे सभी से|
अब ना कोई है शिकवा जिंदिगी से…
वो लम्हा काफी है उम्र भर को ‘वीर’,
उस लम्हे में हम मिले थे खुदी से|
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